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असमय नदी / कर्मानंद आर्य

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कई हजार लोग थे उसके साथ
वह मुस्करा रहा था, और आगे बढ़ता जा रहा था

उसके लोगों का पेट भरा हुआ था
वे डकार मार रहे थे
ढोल और मांदर बजा रहे थे
कुछ अपनी तोंद को, फुरसत से सहला रहे थे
कुछ चलते-चलते, कर रहे थे, वेद-पुराण की बात

हर आदमी अपने में ही मस्त था
एक कह रहा था
उस आदिवासी कवयित्री की कविता में दम है
जो अपने मेमने को दूध पिला रही है
दूसरा कह रहा था
उसकी जांघे तो देखो
कोई कविता की पंक्ति लगती है
इस पर ‘पाठ’ का आयोजन होना चाहिए
‘इसे अपना ज्ञान पीठ दे दो’
एक ‘नामवर’ बोल रहा था
‘इसे लोक और शास्त्र का द्वंद्व समझ लो’
समझा रहा था कोई मैनेजर

हर किसी के पास काम था
हर किसी के पास तारीफ़ का पुल
हर कोई बिजी था

ठीक उन हजार लोगों के पीछे
कुछ हजार लोग
जो छल-छद्म का ‘क’ भी नहीं जानते थे
भूख को आस्वाद पर रखकर रो रहे थे

उस समय बह रही थी असमय नदी
उसी में अनवरत हो रहा था रक्तस्राव