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बरिअहि रोपले धतुर फूल, औरो ओरहुल फूल रे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

इस गीत में, चंदन के वृक्ष के बिना बाग, माँ के बिना नैहर, पति के बिना ससुराल और सिंदूर के बिना माँग की शोभा नहीं हो सकती, इसका वर्णन किया गया है। इन सभी चीजों का जीवन तथा जगत् में महत्वपूर्ण स्थान है। अधिक-से-अधिक सोने से भी माँग की शोभा नहीं बढ़ती, न सौभाग्य ही लौट सकता है। सौभाग्य का सूचक तो एक चुटकी सिंदूर ही है।

बरिअहिं<ref>घर के पास की फुलवारी, जिसमें फल-फूल, तरकारी आदि की खेती होती है</ref> रोपलें<ref>रोपा</ref> धतुर फूल, औरो ओरहुल<ref>अड़हुल, ओड़पुष्प</ref> फूल रे।
ललना रे, तैयो<ref>तोभी</ref> नहिं बरिया सोहामन, एकहिं चनन बिनु रे॥1॥
नैहरा में छेलै<ref>था</ref> बाबा लोग, औरो भैया लोग रे।
ललना रे, तैयो नहिं नैहरा सोहामन, एकहिं अम्माँ बिनु रे॥2॥
ससुरा में छेलै ससुर लोग, औरो भैंसुर लोग हे।
ललना रे, तैयो नहिं ससुरा सोहामन, एकहिं सामी बिनु रे॥3॥
सोनमों<ref>सोना</ref> जे देबओ अढ़ैया<ref>ढाई सेर की तौल या बाट</ref> जोखी<ref>तौलकर</ref>, औरो पसेरी जोखी रे।
ललना रे, तैयो नहिं मँगिया<ref>माँग</ref> सोहामन, एकहिं सेनुर बिनु रे॥4॥

शब्दार्थ
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