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आँखें बिछ जाती थीं / महेश सन्तोषी

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न हम यहाँ खड़े रहे, न जिन्दगी यहाँ ठहरी रही,
न अब वैसा मौहल्ला रहा, न गली रही,
न द्वार रहा, न देहरी रही।

ज्यादा नहीं थे हमारे घरों के फासले
जब जी चाहा एक दूसरे से जा मिले,
हमारे आँगन में खुलती थी
तुम्हारे कमरे की खिड़कियाँ
कभी आँखें चमकती थीं, कभी बिन्दी कभी चोटियाँ,
जिन सड़कों से होकर तुम आती-जाती थीं,
उन पर पहिले से ही हमारी आँखें बिछ जाती थीं,
तब सब रास्ते, तुम्हारे स्कूल या तुम्हारे घर तक जाते थे,
बिना मुड़े शाम को इकट्ठे तुम्हारो दरवाजों पर ठहर जाते थे,
फिर एक दिन समय ने हमारा सह-अस्तित्व निगल लिया।
हमारी सम्मिलित पहचान निगल ली।
...न द्वार रहा, न देहरी रही।

एक दिन तुम्हारा नाम बदल गया, रहने का शहर बदल गया,
अपरिचित सगे हो गये, परिचितों से अपरिचय बढ़ गया,
कल तक जी हुईं असलियतें, यादों में बदल गयीं,
हमारी जिन्दगियों ने ओढ़ ली, असलियतें नयी-नयी,
एक घर टूटने लगा, एक बसने लगा,
क्या हुआ? हमें अच्छा लगा, नहीं लगा,
हर तरफ से हमारे बीच में दूरियाँ ही दूरियाँ रहीं,
न स्थाई अभाव रहे, न स्थाई पूर्तियाँ रहीं,
बुझे दिये-सी लगी, बुझी-बुझी-सी यादें,
जैसे ज़िन्दगी में अब जलने की जरूरत ही नहीं रही।
...न द्वार रहा, न देहरी रही।