बरसों से
कारा-गृह के 
क़ैदी के मन को 
नहीं छूती है,
यह सुनहरी धूप-
सलाखों के बीच से आती हुई।
	
बरसों से
कारण चाहे
जो कुछ भी रहा
क़ैदी के मन को 
नहीं छूती है,
पीले-पीले मुलायम 
पंखुड़ियों वाले
फूलों की गन्ध।
बरसों से
क़ैदी के मन को 
नहीं छूती है,
मदहोश करने वाली 
बलखाती-इठलाती हवा।
शायद, 
छू भी नहीं पायेगी 
आत्मा कभी
शरीर छोड़ने से पहले।