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पथिक / अनुभूति गुप्ता

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आकाश में
काले-काले मेघ
उमड़ते हैं
घुमड़ते हैं
ज़ोर-ज़ोेर से
गरजते हंै
पथराते हैं
बीच रास्तांे पर,
ओले की बरसात
करते हंैं।
पथिक मुश्किल में है
कि
अपनी मंज़िल को
वह कैसे पाये,
अभी तो यात्रा आरम्भ हुई
घोर श्रम करके
यहाँ तक पहुँचा
कैसे वह,
उल्टे पाँव लौट जाये।
मन की दुर्बलता को
त्यागकर
संघर्ष की क़िताब के
पन्नों को टटोलकर
आखिर मंज़िल तो...
उसे पानी है
जीवन में बाधाएँ
क्या है-
यह
तो वह बरसात है
जो करती
अपनी मनमानी है।