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बन्धक स्त्रियाँ / अनुभूति गुप्ता

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बरसों से
सलाखों के पीछे से
यंत्रणा-गृह की
   बन्धक स्त्रियाँ

सूरज की किरणों के
कोमल स्पर्श को
ग्रहण करने के लिए
लालायित-सी, प्रतीक्षारत हैं।

५६-आपाधापी में फँसी लड़की

माँ की गोद पाकर
फिर बच्ची हो जाऊँ
भीतर की बुराई को मारकर
फिर अच्छी हो जाऊँ

बचपन की मासूमयित
जाने कहाँ खो गयी है
जवानी की सीढ़ियाँ क्या चढ़ी
माँ की ममतामयी गोद
दूर हो गयी है

जिन्दगी की दौड़ धूप में
मैदानों के धूल-धक्कड़ में
खिलते हए
रिश्ते भी मुरझा गये
दूरियों के साये
जाने बीच में
कहाँ से आ गये

चाहती हूँ कि-
आज साँझ होने से पहले
मैं अपने घर पहुँच जाऊँ
माँ..माँ..करते-करते
रोते-रोते
अपनी ’माँ’ से
लिपट जाऊँ...।