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क्या हुआ? / महेश सन्तोषी

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क्या हुआ जो हम अपने
शरीर एक दूसरों को
समर्पित नहीं कर सके?
शायद हमारे प्यार का यही
प्रारब्ध था कि
वह साँसों में तो बसे
पर रह जाये,
बाँहों में बिना बसे!

ऐसा भी नहीं था
कि हमारी देहें एक दूसरे से
मिलने को आतुर नहीं रहीं,
पर बीच में समाज रहा
सीमित आचरणों की
असीमित वर्जनाएँ रहीं,

फिर एक दिन
बिना विधियों के अविवाहित
ही रह गया हमारा प्यार,
हम देखते रह गये अपनी
खिली देहों के पल्लवित हरसिंगार!

अब तो दूर, बहुत दूर
निकल चुका है जिन्दगी का सफर
वर्षों हुए, जब हमेशा को
उजड़ा था हमारे प्यार का घर
फिर भी कभी-कभी मैं सोचती हँू
क्या देहों का मिलन प्यार के सभी भौतिक
आचरणों का एक संकलित दूसरा नाम है?
और क्या खुले या छिपे देहों के उत्सवों की
पुनरावृत्त प्रस्तुति ही प्यार की एकाकी
अनावृत्त पहिचान है?

मेरा यह प्रश्न तुमसे भी है और स्वयं से भी,
जीवन के यथार्थ से भी, और अनन्य से भी,
यह सच है हम अपने प्यार को,
दैहिक सर्मपणों से सम्मानित नहीं कर सके,
पर केवल इसीलिए हम उसे कभी तिरस्कृत,
विस्मृत और अपमानित भी तो नहीं कर सके!