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खिड़की / सोनी पाण्डेय

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मेरे पास तब भी एक खिड़की थी
आज भी एक खिड़की है
आज वाली खिड़की उस खिड़की से इतनी बड़ी है
कि देख सकती हूँ आकाश के अन्तिम छोर को
जो मेरी आँख की परिधि में कैद था उन दिनों
इस खिड़की पर रंगीन परदे पर कभी-कभी ही आती है गौरैया
ना जा क्यों घबड़ाती है
शायद इस बड़ी खिड़की से साफ दिखती है उसे अन्दर की घुटती दुनिया
या मेरे टूट कर गिरते ड़ेंगे को देख कर भय खाती है
खिड़की का बड़ा होना
मेरी सिकुड़ती हुई दुनिया का विस्तार है
जो तना है चौखट के समानान्तर
वो खिड़की छोटी थी
किन्तु सपनों का वितान तानती थी उस आकाश तक
जहाँ उड़ते थे लड़के मेरी गली के
और इस तरह उस खिड़की की लघुता नापते हुए पाती हूँ
सिमाऐं आज भी उतनी ही हैं खिड़की की
जो होती है उन दिनों।