दो ही शब्द काफी हैं इस विश्व सार में
मनुष्यता रहे गर मनुष्य के प्यार में।
हृदय उदार हो मनुष्य का मनुष्य से
अखंड प्यार हो मनुष्य का मनुष्य से।
मनुष्य हम बनें, यह सभी का लक्ष्य हो
मनुष्य के लिए ना मनुष्य भक्ष्य हो।
उस देस में सभी से प्रेम भाव चाहिए
ना जाति-पाँति-धर्म का दुराव चाहिए।
जाति-धर्म तो प्रसिद्ध है मनुष्य प्रेम का
जब से भू रही है यह नियम चल रहा।
हर जिगर में रम रही है मनुष्यता
कर रही है सबको प्रसिद्ध विश्व मंे।
इस गान से पता लगा कि है प्रभु कहाँ
मनुष्य प्रेम बढ़ता है निरन्तर जहाँ-जहाँ।
रमण कह रहा कि मनुष्यता ही प्रेम धर्म हो
हर मनुष्य को मनुष्य ज्ञान, मान, धर्म कर्म दो।