हे प्रकृति;
जग रोॅ मूल संस्कृति।
पलभर नै जीना तोरोॅ बिना
साँस पर साँस पावै जेना,
हवा बतास हलफै आय खना।
वेदिति बीथी,
जेनां चमकै छै मोती।
तोंहीं धरती आरो गगन,
पहाड़, पत्थर, वन-उपवन
तोंहीं सब रोॅ जीवन-मरण,
जग जानै सब रोॅ अन्न-धन
हे प्रकृति,
सब रोॅ ‘‘संधि’’ तोरेह सें गति!
तोरोॅ सुन्दर रूप सलोना
चलै नै केकरोॅ जादू-टोना
परिवर्तन के सीख अनोखा
गति, मति तोॅय सबके मन कर
जन मन के सबसेॅ बड़ोॅ अतिथि
हे प्रकृति!!