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स्वार्थी / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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हे, महार्थी,
सब्भेॅ छै स्वार्थी।
निःस्वार्थ भाव सेॅ कोय नयॅ चलै छै दाव,
ऊपरोॅ सेॅ दाँत निपोॅरेॅ भीतर राखै छै घाव।
तोरा लेॅ विश्वास जमाय लेलीं, खूब देखातौं भाव,
समय पैलोॅ पेॅ नोंची-खायतौं, आरो राखतौ चॉव।
हे, माय धरती,
हे, महार्थी,
सब्भेॅ छै स्वार्थी।
जब्बेॅ तलक छौंव तोरा लेॅ धन-दौलत-पैसा,
गोड़ चुमतौं, तोरा पेॅ रखतों भरपूर आशा।
रस चूसला पेॅ रहतौं खाली हाथ निःराशा,
घर-बाहर कोय नयं गिनतौं, रहतौं तोरोॅ किस्सा।
हे, परमार्थी,
सब्भेॅ छै स्वार्थी।
शहर-गाँव-घोॅर कसवा ताँयॅ,
कोय नयं मिललै ईमानदार आभी ताँय।
तोरोॅ धन-सम्पति तोरा नयं देतौं घरोॅ में मोल,
पलड़ा पेॅ चढ़ाय के तौलतौं बचलोॅ छै "संधि" खरखरी जेना मोल।
हे, "संधि"
बचतौं खाली-तोरॉ अर्थी।
हे, महार्थी,
सब्भे छै स्वार्थी।