युग-युगान्तर से, आयलोॅ छै प्रकृति।
एकरा पाबी केॅ, कत्ते खुश छै धरती॥
अजब सजैलोॅ छै, बूरा भला।
धरती केॅ पहनालोॅ छै, सिंगार माला॥
यहीॅ सजालोॅ छै, विभिद मानव।
यहीॅ बनालोॅ छै, कुटिल दानव॥
अजीब छै दुन्हूँ मेॅ शर्ती॥
युगः युगान्तर सेॅ, आयलोॅ छै प्रकृति।
एकरा पानी केॅ, कत्तेॅ खुश छै धरती॥
काँहीॅ जंगल-फूलपत्ति झाड़।
काँहीॅ श्वेत, लाल-काला पत्थर पहाड़॥
कहीॅ जीव-जन्तु पक्षी कमाल।
वाँहीॅ पलै छै, पशु-लघु-विशाल॥
सब पैॅ छै, हुनखै कृपा-महति।
युग-युगान्तर सेॅ, आयलोॅ छै प्रकृति।
एकरा पाबी केॅ, कत्ते खुश छै धरती॥
सुख-दुःख भोगॅ, बाँटेॅ विलाष।
कर्म-कुकर्म फल साजेॅ-साजेॅ विलास॥
मतुर पुराबेॅ यँहीॅ, सबरोॅ आश।
आबेॅ जानेॅ "संधि" , तोॅहीं अमृत हस्ति॥
युग-युगान्तर सेॅ, आयलौॅ छै प्रकृति।
एकरा पानी केॅ, कत्तेॅ खुश छै धरती॥