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मोह / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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अन्हारोॅ राती में,
दीया आरो बाती नै।

आँखी सें सूझै नै छै,
मतुर, मोन बुझै नै छै।
हरदम ओकरैह चाहै छै,
कत्तेॅ ओकरोॅ गुलाम छै?
छै असकल्लोॅ साथें कोय साथी नै।

जिनगी सैयाद छै,
होय गेलोॅ बर्बाद छै।
कोय नै महान छै,
सभ्भेॅ बेईमान छै।
कुम्हारोॅ केॅ आवा नै,
कमारोॅ केॅ भाँति नै

गेलोॅ सब परदेश छै,
छोड़ी केॅ दूर देश छै।
केकरा कहबै दुक्खोॅ के बात,
सभ्भेॅ करतेॅ झाते-झात।
ओह! आबै छै याद,
करै छै हमरा बरबाद।
तोरोॅ सूरत-मूरत पेॅ कत्ते कुतराय छै,
मोन मिलत्हैं खूब सुरराय छै।
कहेॅ "संधि" की करतै जाति पाति नेॅ?
भूली गेलै ऐन्होॅ हमरा,
दै छै चिट्ठी पाती नै।