भर चुका है घाव पर उसका उभरना कम नहीं है।
थम गई बूदें धरा के तृषित रन्ध्रों को भिगो कर,
चल पड़े घन भी क्षितिज की ओर बर्षा विमुख होकर,
पर गगन में दामिनी दुति का चमकना कम नहीं है।
भर चुका है घाव पर उसका उभरना कम नहीं है।
सिन्धु को शरमा चुकी है आंसुओं की मुसकराहट,
अब न आती कल्पना के नूपुरों की मन्द आहट,
पर हृदय के व्यथित भावों का मचलना कम नहीं है।
भर चुका है घाव पर उसका उभरना कम नहीं है।
भूल से जो शूल पगतल में चुभा यौवन डगर में,
पीर उसकी दूर पंथी व्यस्त है जीवन समर में,
पर थके पग में अभी उसका कसकना कम नहीं है।
भर चुका है घाव पर उसका उभरना कम नहीं है।