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सुनामी / अमरजीत कौंके

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वह तो अन्नदाता था
हशारों, लाखों जानों का पालनहार

कोई भी उसके पास गया
खाली हाथ वापिस नहीं था आता
लाखों जानों के लिए
वह मछुआरों के पास
ढेरों के ढेर मछलिआँ पहुँचाता
कितनी सीपियां, मोती, घोंघे तो
वह खुद ही ला कर
किनारों पर बिछाता

वह इतना क्रोधवान तो नहीं था
कि लाखों जानों की
कब्रगाह बन गया

कहीं इस में
हमारी कोई खता तो नहीं
जो उसने हमें दी
हमारी ही गलती की
सज़ा तो नहीं

किनारों से बाहर आने के लिए
हमने ही उसे मजबूर किया है

वह इतना क्रोधवान तो नहीं था
कि लाखों जानों की
कब्रगाह बन गया।