Last modified on 29 जून 2017, at 09:01

बदनाम औरतें / सोनी पाण्डेय

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:01, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोनी पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

माँ ने सख़्त हिदायत देते हुए
कहा था
उस दिन
उस तरफ कभी मत जाना
वो बदनाम औरतों का मुहल्ला है।
और तभी से तलाशने लगीं आँखें
बदनाम औरतों का सच
कैसी होती हैं ये औरतें?
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं?
क्या इनका कुल-गोत्र भिन्न होता है?
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं?
ये औरतें मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीं थीं उन दिनों
जब मैं बड़ी हो रही थी
समझ रही थी बारीक़ी से
औरत और मर्द के बीच की दूरी को
एक बड़ी लकीर खींची गयी थी
जिसका प्रहरी पुरुष था
छोटी लकीर पाँव तले औरत।
बदनाम औरतों को पढ़ते हुए जाना
कि इनका कोई मुहल्ला होता ही नहीं
यह पृथ्वी की परिधि के भीतर बिकता हुआ सामान हैं
जो सभ्यता के हाट में सजायी जाती हैं
इनके लिए न पूरब है न पश्चिम
न उत्तर है न दक्खिन
न धरती है न आकाश
ये औरतें जिस बाज़ार में बिकता हुआ सामान हैं
वह घोषित है प्रहरियों द्वारा
“रेड लाईट ऐरिया”
प्रवेश निषेध के साथ।
किन्तु
ये बाज़ार तब वर्जित हो जाता है
सभी निषेधों से
जब सभ्यता का सूर्य ढ़ल जाता है
ये रात के अन्धेरे में रौनक होता है
सज जाता है रूप का बाजार
और समाज के सभ्य प्रहरी
आँखों पर महानता का चश्मा पहन करते हैं
गुलज़ार इस मुहल्ले को
बदनाम औरतों के गर्भ से
जन्म लेने वालीं सन्तानें सभ्य संस्कृति के उजालों की देन होतीं हैं
जिन्हें जन्म लेते ही
असभ्य करार दिया जाता है।
ये औरतें जश्न मनातीं हैं बेटियों के जन्म पर
मातम बेटों का
शायद ये जानती हैं
कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें।
ये बदनाम औरतें ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैं
मैं साक्षी हूँ
पंचतत्व, दिक्-दिगन्त साक्षी हैं
देखा था उस दिन मन्दिर में
ढोल-ताशे, गाजे-बाजे
लक-धक, सज-धज के साथ
नाचते गाते आयी थीं
मन्दिर में बदनाम औरतें
बीच में मासूम-सी लगभग सोलहसाला लड़की
पियरी चुनरी में सकुचाई,लजाई-सी चली आ रही थी
गठजोड़ किये पचास साला मर्द के साथ।
सिमट गया था सभ्य समाज
खाली हो गया था प्रांगण
अपने पूरे जोश में भैरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ
लगा बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है।
पुजारी ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से
थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ के आँचल में डाला था
भरी गयी लड़की की माँग।
अजीब दृश्य था मेरे लिए
पूछा था माँ से,
ये क्या हो रहा है? ब्याह?
मासूम लड़की अधेड़ से ब्याही जा रही है?
अम्मा ! ये तो अपराध है
माँ ने हाथ दबाते हुए कहा था
ये शादी नहीं, इनके समाज में
"नथ उतरायी की रस्म है”।
और छोड दिया था अनुत्तरित मेरे बीसियों प्रश्नों को
समझने के लिए समझ के साथ।
हम लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियों में
एक किनारे कसाई की दुकान पर
बँधे बकरे को देखकर
माँ बड़बड़ायी थी
“बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी”
और मैं समझ के साथ-साथ
जीती रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को
तब तक, जब तक समझ न सकी
कि उस दिन, बनने जा रही थी सभ्यता के स्याह बाजार में
मासूम लड़की
बदनाम औरत...
एक बडा सवाल गूंजता रहा
तब से लेकर आज तक कानों में
कि, जब बनायी जा रही थी समाज व्यवस्था
क्यों बनाया गया ऐसा बाज़ार?
क्यों बैठाया गया औरत को उपभोग की वस्तु बना बाजार में?
औरत देह ही क्यों रही पुरुष को जन कर?
मथता है प्रश्न बार-बार मुझे
देवो ! तुम्हारे सभ्यता के इतिहास में पढा है मैंने
जब-जब तुम हारे
औरत शक्ति हो गयी
धारण करती रही नौ रुप
और बचाती रही तुम्हें।
फिर क्यों बनाया तुमने बदनाम औरतों का मुहल्ला?
क्या पुरुष बदनाम नहीं होते?
फिर क्यों नहीं बनाया बदनाम पुरुषों का मुहल्ला, अपनी सामाजिक व्यवस्था में?
मैं जानती हूँ, तुम नैतिकता,संस्कार और संस्कृति के नाम पर
जीते रहे हो दोहरी मानसिकता का जीवन .
सदियों से।
देखते आ रहे हो औरत को बाज़ार की दृष्टि से ।
आज तय कर लो
प्रार्थना है . . . .
कि बन्द करना है ऐसे बाज़ार को
जहाँ औरत बिकाऊ सामान है
जोड़ना है इन्हें भी
समाज की मुख्यधारा से
आओ, थाम लें एक-दूसरे का हाथ
बना लें एक वृत्त
इसी वृत्त के घेरे में
नदी, पहाड़, पशु-पक्षी
औरत-मर्द
सभी चलते आ रहे हैं सदियों से
और बन जाता है ये वृत्त धरती
और धरती को घर बनाती है
औरत
तुम रोपते हो जीवन
बस यही सभ्यता का उत्कर्ष है।
हाँ, मैं चाहती हूँ
ये वृत्त कायम रहे
इस लिए मिटाना चाहती हूँ
इस वृत्त के घेरे से”बदनाम औरतों का मुहल्ले”का अस्तित्व
क्यों कि औरतें कभी बदनाम होती ही नहीं
बदनाम होती है दृष्टि।