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प्रेम 2 / सोनी पाण्डेय

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ये जानते हुए कि
तुम्हारा प्रेम आज आत्मिक है
कल रंगेंगा थोड़ा गाढ़ा
और गाढ़ा
इस तरह रंगते हुए
चढ़ते हुए आत्मा की सीढ़ियाँ
एक दिन हो जाएगा इतना गाढ़ा
कि आत्मिक और कायिक अनुभूतियों का रंग
चढ़ने लगेगा पोर-पोर में
तुम कहते हुए डरते हो
कि आत्मिक प्रेम कैसे बदला कायिक में
सुनो!
प्रेम की पराकाष्ठा ले जाती है
उस अनन्त नाद-सौन्दर्य तक
जहाँ आत्मा के प्रवेश द्वार को लांघते हुए
तुम पहुँचते हो नतमस्तक
रेंगते हुए काया में
बदल जाते हो सुकोमल
नवीन काया में
तुम्हारे झुकते ही चूम लेती है श्रद्धा
तुम्हारा ललाट
क्या तुम जानते हो मनु?
प्रेम की इस भाषा को...