Last modified on 18 अगस्त 2017, at 23:20

औरत / अभिनव अरुण

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 18 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिनव अरुण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

१.
मैंने घर बदले
दर दरवाज़े और दहलीज़ें भी बदलीं
लोग सोच और श्रृंगार भी बदले
पर नहीं बदल सकी
अपनी नियति
देहरी में कैद
आज भी मैं
एक औरत

२.
कभी छतरी सर पर लगा
कभी गर्म स्वेटर पहन
और कभी छज्जे की ओट में छुप
सबने लुत्फ़ लिया उस मौसम का
जिसे कहते हैं औरत

३.
पूजी भी गयी
लाल चुनरी में लपेट
धूप दीप दिखा
फूल नैवेद्य चढ़ा
शीश नवा
तब जब मूरत रूप में थी
हाथों में तलवार लिए
मुंह सीए
एक औरत

४.
सबका आखिरी निवाला
सबकी थाली में बची जूठन
सबके छोटे बड़े हुए
पसंद नापसंद आये
वस्त्र और आभूषण
सजते रहे मेरे तन पर
सबके बोले अबोले
ताने उपमाएं और उपमान
मेरे अलंकरण बने
और इस तरह
मैं बनती रही
एक औरत

५.
मेरी ममता
मेरा दुलार
मेरे दिए संस्कार
मुझसे ही ले
मांस अस्थि मज्जा
बनती रही पीढियां
मेरे ही अस्तित्व को नकारती
फिर भी सदियों से
सदियों की तरह ख़ामोश
आज भी मैं
एक औरत

६.
मादक सुरभित
देहयष्टि में
तह दर तह
आमंत्रित करते
मोहक मुस्कानों को
देखते रहे हम बेसुध
हमने नहीं देखी
सौ तहों में लिपटी
पीड़ा को सहेजती
जीती जागती
अपने ही आस पास की
एक औरत

७.
अपने हक़ में
नारे नहीं लगाती
मोर्चे निकाल आन्दोलन नहीं करती
तख्तियों को हाथों में ले
कभी ढोल नहीं पीटती
आज भी
लाज और शील के
हमारे ही बनाए सौ सौ
तालों में बंद है
एक औरत