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विदा / स्मिता सिन्हा

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सिगरेट के लम्बे गहरे कश के साथ
मैं हर रोज़ उतरता हूँ
अँधेरे की गंध में डूबे उस तहखाने में
जिसके प्रस्तरों पर
अब भी बिखरे से पड़े हैं
जाने कितने मखमली ख्वाब
जो कभी साझे थे हमारे
बंद आँखों को मैं
और कसकर बंद करता हूँ
ताकि बचा सकूँ कुछ स्मृतियों को
बिखरने से पहले
सहेज सकूँ उनके कुछ अवशेष!

वह झरोखा तो अब भी वहीं है
तो शायद अब भी होगा
वह एक टूकड़ा चाँद वहीं कहीं
उसी दरख्त के पीछे
पर नहीं
कुछ झरोखे गर्द सीलन से भरी हवा लाते हैं
जो घोंटतीं हैं साँसे
मैं चुपचाप चलता जाता हूँ
सन्नाटे में डूबे गलियारों में
तुम्हारे निशानियों को टटोलते हुए
कि दे सकूँ तुम्हें
तुम्हारे पसंद के गुलमोहर के कुछ फूल
कि सुन्दर मौसम तो बस यादों में ही रह जाते हैं!

सिगरेट की हर कश के साथ
मैं भटकता हूँ
खूब भटकता हूँ
खुद को खो देने की हद तक
और फ़िर सोचता हूँ
क्या ये मुनासिब नहीं होता कि
एक झूठी सी गफलत ही सही
बाकी रहती हम में कहीं
कि ये जो कुछ कच्चा पक्का सा है
हमारे रिश्ते में
अब भी कायम है और यूँ ही रहेगी सदा
तुम्हें पता है
सिगरेट के हर कश के साथ
मैं उलझता हूँ
अटकता हूँ हर बार
वहीं उसी लम्हे में
कि आखिर क्यों कहा तुमने मुझसे
हमारे बीच का वो आखिरी शब्द 'विदा'॥