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द्वितीय अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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शुचि शुद्ध मन से ब्रह्म तत्व गहन परम प्राप्तव्य है,
जीवात्मा को पूर्ण प्रभु, ही मात्र एक गंतव्य है।
जो भिन्नता देखे वह पुनरपि जन्म मृत्यु के चक्र में,
फंस कर न पाये मुक्ति वह, फंस जाए जो दुष्चक्र में॥ [ ११ ]

प्रभु सर्व व्यापी, व्याप्त पर स्थित ह्रदय में विशेष है,
अंगुष्ठ मात्र,त्रिकाल शासक ब्रह्म ही परमेश है।
अनुसार स्थिति के, सभी आकारों से संपन्न है,
नचिकेता प्रश्नायित तुम्हारे, ब्रह्म ये ही अभिन्न हैं॥ [ १२ ]

प्रभु धूम्रहीन अतीव ज्योतित, ज्योतिमय परमेश हे!
वर्तमान व विगत आगत के नियंत्रक वृनी महे।
त्रैकाल शासक नित, सनातन, काल सीमा से परे,
यही ब्रह्म नचिकेता प्रिय, तू जिसकी जिज्ञासा करे॥ [ १३ ]

ज्यों उच्च शिखरों पर वृषित जल, गिरि के चहुँ दिशि फैलता,
अनुरूप रूप के रूप ले, जल एक हैं देते बता।
ज्यों एक प्रभु से सृजित सृष्टि, प्रभु पृथक किंचित नहीं,
यदि मान्यता जिनकी पृथक, उनकी कभी मुक्ति नहीं॥ [ १४ ]

हे गौतमी ! नचिकेता प्रिय, विश्वानि सृष्टि है ईश की,
संसार उपरत जन ही तो पाते कृपा जगदीश की।
ज्यों शुद्ध जल में शुद्ध जल मिल, शुद्ध जल ही बन सके,
त्यों तत्व ज्ञानी ब्रह्म ज्ञान से ब्रह्म वेत्ता बन सके॥ [ १५ ]