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द्वितीय अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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मानव शरीरी रूप पुर,ईश्वर का ग्यारह द्वारों का,
जीवात्मा को जीते जी, पूजा को पथ उद्धारों का।
वह शोक कारण रूप जग , बन्धन से छूटे मुक्त हो,
नचिकेता यह वह ब्रह्म है, तुम जिसके प्रति आसक्त हो॥ [ १ ]

परब्रह्म हंस बहुत ऋतं शुचि बृहत इसके रूप हैं,
देवानुप्रिय गृह में अतिथि, वसु अन्तरिक्ष अनूप हैं।
प्रभु व्योम स्थित ऋत प्रतिष्ठित, अग्नि होता यज्ञ में,
भू- द्यु , गिरि, नद, अन्न, औषधि सब समाये अज्ञ में॥ [ २ ]

दे उर्ध्व गति प्राणों को व जो अधोगति दे अपान को,
प्रभु स्वयम स्थित हृदय में, हैं शुचि प्रदेश महान को।
उन हृदय स्थित परम प्रभु का, देवता पूजन करें,
शुचि दिव्य शुभ गुण गण विभूषित ईश का वंदन करे॥ [ ३ ]

गमन शील हैं प्राण जीव के, यह कभी स्थिर नहीं,
एक शरीर से दूसरे में, जन्म मृत्यु हो चिर यही।
प्राण निकलें जब शरीर से, शेष क्या रहता कहो,
जो शेष वह ही विशेष है, परब्रह्म अंश महिम अहो॥ [ ४ ]

न तो प्राण न ही अपान शक्ति से, जी सके कोई यहाँ,
जीवात्मा में मूल चेतन तत्त्व ब्रह्म है ऋत महा।
आश्रित हैं प्राण अपान दोनों, मरण धर्मा जीव में,
जीवात्मा बिन क्षण का न अस्तित्व पृथक सजीव में॥ [ ५ ]

नचिकेता प्रिय तुम जीव ब्रह्म के तत्व को मुझसे सुनो,
हूँ प्रतिज्ञ तुमसे गौतमी, श्रवणीय तत्व को तुम गुनो।
जीवात्मा का होता क्या है , मर के है जाता कहाँ,
परब्रह्म का है स्वरूप कैसा ? मर्म कहता हूँ यहाँ॥ [ ६ ]

स्व संस्कार व कर्मों के अनुसार ही सब जन्मते,
यहाँ कुछ बने जीवात्मा, कुछ कीट पशु कुछ जड़ लते।
यहाँ शुभ -अशुभ कर्मों के ही, अनुसार जड़ जंगम मिले,
जब ज्ञान तत्व विशेष , तब जीव ब्रह्म से जा मिले॥ [ ७ ]

प्रभु परम अति है, विशुद्ध तत्व है, ब्रह्म भी अमृत वही,
विश्वानी विश्व का वास उसमें, एक शाश्वत ऋत वही।
अतिक्रमण हीन विधान उसके, कर्म फलदाता वही,
जागे प्रलय काले वही, तुम जिसके जिज्ञासु मही॥ [ ८ ]