निरर्थक है प्रमाणित सत्य को
अस्वीकारते हुए
करवट बदल सो जाना
निरर्थक है भावों को
शब्दों की माला पहनाते
आशंकित मन का
मध्य मार्ग ही
उनका गला घोंट देना
निरर्थक है बार-बार धिक्कारे हुए
शख़्स का
उसी चौखट पर मिन्नतें करना
निरर्थक है फेरी हुई आँखों से
स्नेह की उम्मीद
निरर्थक है बीच राह पलटकर
प्रारम्भ को फिर पा लेना
हाँ, सचमुच निरर्थक ही है
ह्रदय का मस्तिष्क से
अनजान बन जाने का हर आग्रह
ग़र समेटनी हों
स्मृतियों के अवशेष
टूटते स्वप्नों के साथ
विदा ही प्रत्युत्तर हो
हर मोड़ पर खड़े चेहरों का
और समझौता ही बनता रहे
गतिमान जीवन का एकमात्र पर्याय
तो फिर सार्थक क्या?
ये जीवन भी तो
जिया यूँ ही
निरर्थक!