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क्या करिये / कुमार रवींद्र

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दिन वसंत के
कमल खिले हैं नहीं ताल में
                क्या करिये
 
तुम होतीं तो
कमल देख तुमको खिल जाते
हम भी गीत फागुनी रितु के
दिन-भर गाते
 
हुईं कई हैं
दुर्घटनाएँ इधर हाल में
                क्या करिये
 
हवा वसंती
तुम्हें न पाकर लौट गई है
यह विपदा भी
सखी, हमारे लिए नई है
 
धूप-मछरिया
धुएँ-कुहा के फँसी जाल में
               क्या करिये
 
बिना तुम्हारे
बर्फ हो रहीं साँसें सारी
खोज रही है छुवन फूल की
देह हमारी
 
हिम-हवाएँ हैं
चुभो रहीं पिन, सखी,गाल में
               क्या करिये