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आओ चलो / कुमार रवींद्र

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आओ, चलो
सहन में बैठें थोड़ी देर
 
इधर बंद कमरे में टी.वी.
उसमें बासी वही सीरियल
उधर धूप में ताज़े-टटके
तितली-फूलों वाले हैं पल
 
किट्टू -रोहन का
क्या होगा
चिंता यही रही है घेर
 
आँगन में है पेड़ नीम का
उस पर चढ़ती हुई गिलहरी
चलकर देखें -
उसके नीचे
लेटी होगी छाँह छरहरी
 
वहीं मिलेगा
असली सुख
हमको भी, सजनी, देर-सबेर
 
वहाँ सहन में
पुरखों ने बोये थे बीज
ढाई आखर के
कमरे में हैं किये इकट्ठे
हमने झंझट दुनिया-भर के
 
कुछ भी कह लो
कुछ भी कर लो
है सब चार पलों का फेर