छवि उसकी
अब भी आँखों में बसी हुई है
सुबह-सुबह
पगडंडी पर वह हमें मिली थी
पहली-पहली किरण धूप की
तभी खिली थी
वही किरण
साँसों में अपनी धँसी हुई है
कनखी-कनखी हमें देख
वह हँसी अचानक
हमने भी ढाई आखर का
बुना कथानक
सबसे मीठी
वही रूपसी हँसी हुई है
उसी बरस सारी ऋतुएँ
त्योहार हुईं थीं
घर-बाहर सारी घटनाएँ
नेह-छुईं थीं
वही अनूठी छवि
अब भीतर फँसी हुई है