Last modified on 22 जून 2008, at 16:55

हर गली, हर मोड़ पर अब जा बँधे शर्तों में लोग / द्विजेन्द्र 'द्विज'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:55, 22 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज' }} Category:ग़ज़ल हर गली, हर मोड़ पर अब ज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर गली, हर मोड़ पर अब जा बँधे शर्तों में लोग

सिर्फ़ जीने के लिए इक ज़िन्दगी क़िश्तों में लोग


नट, जमूरे, दास, बँधुआ या बने कठपुतलियाँ

नाचते हैं कैसे— कैसे वक़्त के हाथों में लोग


बीते कल को अपनी दुखती पीठ पर लादे हुए

ढो रहे हैं आने वाले कल को भी थैलों में लोग


ज़िन्दगी जब शर्त थी, जाँबाज़ वो ख़ुद बन गए

सीपियों ,शंखों की ख़ातिर खो गए लहरों में लोग


मतलबों की मंत्र—सिद्धि का असर तो देखिए

एक थे जो, रफ़्ता—रफ़्ता,बँट गए फ़िरक़ों में लोग


कितने समझौतों,निकम्मी आदतों की चादरें

ओढ़कर दुबके हुए हैं मख़मली ख़्वाबों में लोग


अब कहाँ फ़ुर्सत कि माज़ी की किताबें खोल कर

ढूँढें खुद को आज भी सूखे हुए फूलों में लोग


असलियत है असलियत ज़ाहिर तो होगी एक दिन

जा छिपें बेशक मुखौटों में या फिर परदों में लोग


ज़िन्दगी ! तुझको बयाँ करने की फ़ुर्सत अब किसे

रह गए अब तो उलझ कर राहतों ,भत्तों में लोग


लाख ‘द्विज’ जी ! आपने पाला अकेलापन मगर

फिर अचानक आन टपके आपकी ग़ज़लों में लोग