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राम-लीला गान / 4 / भिखारी ठाकुर

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प्रसंग:

बक्सर के मुनि विश्वामित्र का दशरथ के दरबार में आकर यज्ञ-रक्षा के लिए राम-लक्ष्मण की याचना करना।

वार्त्तिक:

तीसरा पाठ करने वाला ब्राह्मण देवता कहऽतारन-”जे ई अपत कबले निबही“। तीसरा पाठ लंका काण्ड के ह। विभीषण जी रावन के समुझावे गइलन, तब रावण लात मार के निकाल देहलन। तब से विभीषण जी के पाठ ह।

चौथा ब्राह्मण देवता के पाठ ”जबले निबहीं तब ले निबही“। चउथा बाल काण्ड के पाठ ह।

बगसर में राक्षस साधु लोग के वन में ध ध खा जास, तब बहुत साधु लोग विश्वामित्र जी के पास में जा कहल लोग ‘मनी के अकाल मृत्यु हो रहल बा।’ विश्वामित्र जी साधु लोगन से कहलन ‘अयोध्याजी में राजा दशरथ जी के यहाँ रामजी अवतार ले ले बाड़न। हम जात बानी राजा से मांग के रामजी के ले आवे। रामजी राक्षसन के मरीहन। जबले निबहत बा, तबले अब ना निबहीं। ई समाचार सब साधु लोग से कह देब लोगिन:-

इहे समाचार कहऽ सगरे, राम-राम हरे-हरे।
बिस्वामित्र कहि कर, करि कर जतरे; राम-राम हरे-हरे
ओही बेरा, घरी, नछतरे; राम-राम हरे-हरे।
मन अगरात जात में डगरे, राम-राम हरे-हरे
गइलन निरपति जी का नगरे; राम-राम हरे-हरे।
कहलन राजा से जथावत कसरे, राम-राम हरे-हरे
भारी बाटे रामजी के असरे; राम-राम हरे-हरे।
कहत ‘भिखारी’ लेके जाइब बगसरे, राम-राम हरे-हरे
लागल झगरा के डाढ़ि पसरे; राम-राम हरे-हरे।

कीर्त्तन के बाद वार्तिक:

विश्वामित्र जी से राजा दशरथ जी कहला हा- ‘केहि कारण आगमन तुम्हारा?’

तब विश्वामित्र जी कहनी हाँ-‘असुर समूह सतवाहि मोहि। मैं याचन आयउँ नृप तोहीं॥206/9 रा.भ.बा.क. मोही।

विश्वामित्र जी कहनी हाँ:

नील बरन वाले पंकज नयन बारे। भृकुटी विलास वारे लम्ब भुजवारे। पीत पटवारे मन मुस्कान हारे। सूर सरदार रशा में कबहूँ न हारे हैं। रघु-राज रावरो प्राण हूँ सो प्यारे। जालिम जुल्पवारे व्रती कौशल्या दुलारे हैं। मांगनो हमारे गाव मेरा रखवारे। राम नाम वारे जेठ तनय तुम्हारे हैं।

दशरथ जी कहलीं हा-सब सुत मोहि प्राण की नाई। राम देति नहिं बनई गोसाई। ‘राज मांगली, प्राण मांग लीं, बाकिर सावली सूरत देल कबूल नइखे॥’ 206/5 रा.भ.बा.क.

विश्वामित्र जी कहनि हाँ- हम श्राप दे देब।

राजा दशरथ जी कहनी हँ- ‘ऊ कबूल बा: चाहे दीहो श्राप मेरे राज को विनाश को। चाहे मोही जग में कराओ बदनाम को। गिरी ते गिराओ चाहे जल में डुबाओ। चाहे अगनी में जलाओं चाहे भेजो जन्म धाम को। चाहे बसुनायक जो चाहु से की जै नाथ। राज धन धाम देइहों, तन पर का चाम देइहों। सर्बश मैं देइहो न देइहो एक राम को।

तब बशिष्ठ बहु बिधि समुझावा, नृप सन्देह नास कह पावा। 206/8 रा.भ.बा.क.

ई झगड़ा बशिष्ठ महाराज छोड़ा दिहलीं। तब राम जी आ लक्ष्मण जी के देवे के राजी भइली हां।