Last modified on 3 नवम्बर 2017, at 12:23

राम-लीला गान / 38 / भिखारी ठाकुर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 3 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भिखारी ठाकुर |अनुवादक= |संग्रह=रा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रसंग:

मिथिला की परिचारिकाएँ राम के रूप से इतनी प्रभावित हैं कि उन्हें जनकपुरी में रखकर उनकी सेवा करना चाहती हैं।

अब कबहूँ ससुरार से मत जा अवध भगवान। अब कबहूँ...
स्याम-गौर छवि निरखि करब हम नित चरनोदक-पान। अब कबहूँ...
लालसा लागल बा जे धोती फींचब हम, निज करवा के असनान। अब कबहूँ...
कइसे कहीं कहे आवत नइखे, अवहीं बा उमर नदान। अब कबहूँ...
कहत ‘भिखारी’ सारा जग जानल, मिथिला के भइलऽ मेहमान। अब कबहूँ...