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अन्तहीन बाजार / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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लगातार कौन-सी दिशा से
आवाज लगाते हुए
एक हाथ पेट पर
दूसरा हवा में उठाये
जैसे मारता हो पत्थर
लेकिन खाली है
दूर-दूर तक
न घास-पात, न हरियाली
कोई पत्थर भी नहीं
सिर फोड़ने को
ऐसे बियाबान में
किस मायावी चाहत के पीछे
दौड़ रहीं हैं स्त्रियाँ
शिरायें भरी दर्द से, चेहरे एंेठे हुए
लेकिन रुक नहीं सकतीं
क्योंकि रुक गयीं अगर
तो समस्त बाजार बदल जायेगा
फिर वो फर्क ना कर पायेंगी
भूत का वर्तमान से
वर्तमान का भविष्य से
हो जायेगा बाजार अन्तहीन
भूतकाल याद आना भी
उतना ही दुखदायी है
जितना जान लेना भविष्य
क्योंकि अन्तहीन बाजार
बची नहीं रहने देता
कोई आशा छूटने की
सामर्थ्य बदल जाता है विक्षोभ में
पकड़ के दायरे से सब-कुछ बाहर
तब कोई उपाय नहीं बचता
कि इंतजार करे
अन्त के आने का
चाहे दौड़ते हुए
या खड़े रहकर वहीं पर।