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खिड़की / कविता पनिया

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घुटन सी हो रही थी
हर ओर सन्नाटा
साॅय सा‌ॅय की आवाजें
चंचल अशांति रह रहकर करती रही कोलाहल
समय चल रहा था आहट के साथ
घुटन काल बन बढ़ती जा रही थी
जैसे ठहरे पानी में हरी काई जम रही हो
फिसलने की आशंका घेर रही थी
पैर कुछ जमाया ही था
एक धक्का सा लगा
टकरा गई जंग लगी खिड़की से
जिसके पल्ले गीलेपन से सड़ने लगे थे
कुछ चर्र चूँ की आवाज हुई
उजाला दिखा ताजा ताजा
सुनहरी धूप थी
उस दिवस प्रथम बार मन की खिड़की खुली थी
सब कुछ साफ नजर आया