Last modified on 23 नवम्बर 2017, at 17:11

दीवाली / विवेक चतुर्वेदी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:11, 23 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विवेक चतुर्वेदी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शहर के बीच वंचित मानुषों की उस बस्ती को
आज दीवाली पर कुछ उपराम देव घेर रहे हैं।
कांतिमय त्वचा वाले, कुंडल मुकुट वाले,
सज्जित वस्त्र वाले, सुगंधित देह वाले देव
अपने भोगों से ऊबे, मृत्यु भय से आक्रांत ये देव
वर्ष में एक दिन-एक पहर
गरीबी, भूख और अभाव की प्रदर्शनी देखने को उत्सुक हैं।
वो इस दीवाली इस बस्ती के बच्चों के लिए
रंगीन कागजों में लिपटे वरदान ला रहे हैं।
ये वरदान, दीवाली की अमावस रात में
जुगनू-से दीप्त होंगे और बुझ जायेंगे
इनकी कोई सुबह नहीं,
जैसी कि इस बस्ती की भी नहीं।
एक उपदेव बस्ती की पथरीली सड़क पर
सन्नद्ध चलता हुआ हर कच्चे घर में पूछताछ करता
वरदान के लिए नियत बच्चों के नाम
दर्ज करता चल रहा है।
अपनी ढीली चड्डियाँ सम्भाले, अधनंगे सूखे मुंह झगड़ते,
चिल्लाते उत्तेजित बच्चों की भीड़
उसके पीछे दौड़ रही है
इस ठहरी हुई बस्ती में एक उत्तेजना,
एक उन्माद आवारा कुत्तों सा फैल गया है।
देवों की सभा बस्ती के मुहाने पर
एक कच्चे मकान की दहलान मंे होनी है
कसा जा रहा है वहाँ रंगीन झालरों वाला शामियाना।
इस दहलान में काॅलेज का एक लड़का
रोज शाम बस्ती के बच्चों को पढ़ाने आता है।
टूटे श्यामपट्ट पर उसने कल शाम ही लिखा था
‘विकास’ और ‘स्वाभिमान’
आज इसे वरदान सभा के दमकते
फ्लैक्स से ढांक दिया गया है।
फोटो जर्नलिस्टों की चमकती फ्लैश लाइटों के बीच
ये देव चमचमाते एसयूवी रथों से बस्ती में उतर रहे हैं।
फैल गई है यहाँ से उनके दर्प की चकाचैंध
उनके अहं की ध्वनि बहुत दूर तक गूँज रही है।
चिकनी चमड़ी वाले ताड़ से ऊँचे और गोरे ये देव
ऊँचाई से देखते हैं और बस्ती के मानुष
घिटकर और बौने होते जा रहे हैं।
बस्ती में पुराने स्कूल के अहाते,
पड़ा रहने वाला बावला
आज बांधा गया है,
जो कभी अच्छे दिनों में रहा है नाटकों में अभिनेता,
न बांधा जाये तो पत्थर लेकर दौड़ायेगा देवों को,
कहेगा - देवों! बदलो भूमिकायें,
तुम बनो इस बस्ती के नागरिक
खड़े हो जाओ हाथ जोड़े, मैं बनूंगा देव।
इस देव दल का अधिपति
एक राजनेता काला चश्मा चढ़ा,
चुनचुनाते तेल वाले, रंगे बाल वाला
तुंदियल देवेन्द,्र वरदान सभा में भाषण दे रहा है
सहमकर दहलान में सिमट आई है बस्ती।
कहता है देवेन्द्र-बच्चों! तुम्हारे लिये हम खुशियाँ लाए हैं
ढेर सारी अनगिनत खुशियाँ
हम देव हैं वरदान लाए हैं।
सामने टेबल पर सजी हैं
रंगीन कागजों में लिपटी
कुछ आतिशी कुछ मिठाइयाँ।
सहमी और चमत्कृत इस भीड़ में हैं सैंकड़ों जोड़ी हाथ,
जो मजदूरी की भट्टी में तपकर सख्त हो चुके हैं।
इन्हीं हाथों से निकला सम्मोहित तालियों का एक शोर है
जो देवों को लुभाता है।
उपराम देवों की इस वरदान सभा में
आया एक युवा देव बार-बार खड़ा होकर
खिन्न प्रश्न जैसा दिख रहा है
कुछ बलशाली देव उसे जबरिया बिठा रहे हैं।
जय हो-जय हो के कोलाहल में ‘रतन’
जिसकी दहलान में यह सभा है,
भूल गया है कि रात उसके खाने के पहले
ही घट गया था बटुलिया में भात,
घट गया था उसकी टूटी बाल्टी में चूना
वो नहीं पोत पाया है पूरा अपना डेढ़ कमरे का घर।
भीड़ पर अब आशा का उन्माद तारी है
निकट ही है वरदान मिलने का मुहूर्त।
विद्रूप हंसी हंस रहे हैं देव,
दिख रहे हैं उनके दांत
एक-एक कर पुकारे जा रहे हैं नाम
दोनों हाथ उठाए अधनंगे नाम,
दौड़कर आगे आ रहे हैं
दिए जा रहे हैं वरदान।
खींचे जा रहे हैं चित्र, उनमें जगह बनाने देवों में ठेलमपेल है।
अब बांट दिये गये हैं वरदान,
अपने अहं को पोषित कर
रथों में सवार होकर जा रहे हैं देव,
यहाँ से सीधे अखबार की इमारतों में घुसेंगे
और कुल सुबेरे के अखबार में प्रकट होंगे।
देवों के जाते ही उखाड़ा जा रहा है शामियाना
चैंधियाते रोशनी वाले हेलोजन बल्ब उतार लिये गये हैं
देवों के लिए बिछे सिंहासन समेटे जा रहे हैं
शहर के बीच इस बस्ती में
आज दीवाली है।