एक कमज़ोर, थकी हुई
निढ़ाल ग़ज़ल के वक्ष पर
कुछ अक्षर, अल्फ़ाज़-मात्राएँ
चिपके हुए थे।
निसर्ग था
कि गोदते थे उसके स्तन
अपने
नये पैनिले दाँतों से।
वेग से कूद कर
कुछ पीछे जाते
फिर नोचते थे उसे
कुछ बूँद दूध या खूं के लिये भूखे थे।
वो उठी, आगे बढ़ी पर
कुछ दूर कूद कर रूक गयी थी।
अपनी वृति से मुँह मोड़ना
कुछ कठिन था।
हर अल्फ़ाज़ को जगह देती
जोड़ती, उनका पेट भरती चलती ये ग़ज़ल
अब कमज़ोर दिखती है मुझे
बे-मायने हो चली वो खूंखार ग़ज़ल।