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मुक़ाम / आनंद खत्री

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इस धुएँ में महफूज़ हैं
कि शिद्दत से थे हम जिए
वीरानों में झुलस कर
ख़्वाबों को हम रोज़ सज्दा करते हैं

इस धुएँ में महफूज़ है
हर वो शाम, थे जिस पर गम सजे
महक इबादत में उठती है
लपटों से लिपटकर खिला करती है

इस धुएँ में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए....

बेख़ौफ़ बढता चल रहा था
शोलों पर यह कारवाँ
बेफिक्र सहर पर बिछी है
राख इसकी ए बे-ख़बर

एक अनकही टीस है
उससे सुलगकर लिपटकर
बेनाम नाबालिग़ मोहब्बत
हर शाम यहाँ एक क़र्ज़ अदा करती है

इस धुएँ में महफूज़ हैं
महक हर उस नक्श की
जो गुलिस्तान की ख़िलाफ़त में थे खड़े,
घडी गुज़र जाने के बाद

इस धुएँ में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए...