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फिर तुम / छवि निगम

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सोचते लगते हो फूल
खिल जाती है वो
दौड़कर तुम्हारी डेस्क पर फूलदान सजा देती है
फुलवारी बन महक उठती है
एक सी लम्बाई की सुतवाँ टहनियाँ,सुघड़ फूल...
किसी कांटे में उलझी कुछ लाल बूँदें चमकती हैं
तुम्हें पता ही नहीं चलता...
सोचते हो भूख तुम
वो आंच में तप जाती है
सुडौल गेंद सी रोटियाँ
मुस्काती,ढेर लगाती जाती है तुम्हारी थाली में
ध्यान नहीं जाता न
जब रोटियाँ
अधपकी कुछ अधजली,कुछ नमकीन सी हो जाती हैं
नींद फिर तुम्हें सताती है
वो बिछ जाती है
अब ध्यान जाता है तुम्हारा
कि बिस्तर पर तुम्हारे सिर्फ सिलवटें ही सोती हैं
कहते हो,कितना मुश्किल है उसे समझ पाना
आखिर चाहती क्या है वो
पर समझते कहाँ हो तुम?
और सोचने लगते हो प्रेम...