Last modified on 8 दिसम्बर 2017, at 14:05

स्वतंत्रता / छवि निगम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:05, 8 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=छवि निगम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक भेड़ के पीछे पीछे
खड्ढे में गिरती जाती अंधाधुंध पूरी कतार को
भाईचारे को मिमियाती पूरी इस कौम
इतनी सारी 'मैं'
हम न हो पायीं जिनकी अब तक, उनको...
चंहु ओर होते परिवर्तन से बेखबर
चाबुक खाते
आधी आँखों पे पड़े परदे से सच आँकते
झिर्री भर साम्यवाद को पूरा सच समझते
दुलत्ती भूल जो
चाबुक खाने की अफीम चख, बस एक सीध में दौड़ लगाते, उन्हें भी तो...
और बाहर निकलने की कोशिश में
टोकरी के खुले
मुहँ तक बस पहुँचने ही वाले
अपने जुझारू साथी केकड़े को खींच घसीट कर
वापस पेंदे में पटककर
समानता का जश्न मनाते वो सब, जी उनको भी...
जुगाली करते
किसी बिसरे सुनहरे युग की
आँखें मूंदे, ऊबते, जम्हाई लेते
फिर इसी संतुष्टि को उगल देते इर्द गिर्द
भ्रमित इसी पीढ़ी पे जो, उन्ही ठेकेदार सम्प्रभुओं को...
हर इन्कलाब की आहट पर
उदासीनता की रेत में सर घुसेड़े
निश्चिन्त झपकते
व्यक्तिवादी शुतुरमुर्ग को भी तो...
मठाध्यक्ष कछुए
उस लपलपाते सेक्युलर गिरगिट
और विकासशील घोंघे को भी...
जिबह हो जाने की तयशुदा बदकिस्मती को नकारती
बाज़ार का मांसल आकर्षण बनती
इतराती, मुस्कान के मुलम्मे तले एक चुप मौत को जीती जाती
आधी आबादी की इसी मासूमियत को...
और खुले पिंजरे को दिल से कस कर भींचे
अपने लोकतन्त्र के मिट्ठू को....
समाजवादी तालाब की मछलियों और बगुले जी को भी...
जी हाँ!
हम सभी को
आज़ादी मुबारक!