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गाथा / छवि निगम

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कल्पना के आगे, हकीकत से ऐन पहले
किसी जीवित या मृत से सम्बन्ध रखे बिना
समुदाय विशेष आदि की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की मंशा बिन
बावज़ूद हर ऐहतियात
सन्दर्भ और व्याख्या के बीच की महीन रेखा पर उग आया है
इतिहास की तह से निकल आया
ये प्रसङ्ग
किसी कालखण्ड विशेष से सर्वथा मुक्त...
जब मनुष्य हों या भेड़ या हों चींटी
जीवों में अंतर मुश्किल था।
हाँ तो, उस समय जब
किसी प्रारम्भ से किसी अनन्त को
चली जा रही थी असंख्य चीटियों की जुझारू पंक्ति
काली स्लेटी-सी भूरी छोटी बड़ी सभी
विभिन्न परन्तु समान
किसी आदिम लय पर कदम ताल करते निरन्तर...
कदाचित किताब सी आ पड़ी मार्ग में उसके अनायास
पंक्ति गुजरती गयी उसपर से भी अनवरत
अचानक घटा फिर कुछ अजीब सा
अप्रत्याशित
गूंजी बहुत ही तेज कहीं फुसफुसाहट
सहसा उमड़ी एक लड़खड़ाहट
और फिर
वो सघन पंक्ति टूटती चली गयी कुछ विरल रेखाओं में
छटपटाती सी
कुछ अधकचरी कम्पित रेखाओं में।
ये वर्ग विभेद की शुरुआत का नाद था
भावी पंगु विकास का आगाज़ था
सतत् पीड़ित करता अवसाद था।
भूरी चीटियों ने ली थाम सत्ता की बागडोर
कुछ ऊपर चढ़ जाने दिया था संग वर्णसंकर चींटों को भी
स्वामित्व का ठप्पा लगाये
और बोझा सारा लाद दिया बेचारी काली चीटियों के काँधे...
मनमाने दासत्व के तले
और दाग़ दी उनकी सपनीली आँखें...
बस फिर
बताने को और क्या था
वहां केवल अराजक बिखराव था
कुछ सुना सुना सा इतिहास था
गाथा का अंत क्या, कब कहाँ होगा, ज्ञात किसे?
पर यकीन है
ये स्वार्थी राजनीति का किया धरा अनर्थ ही होगा
वो फुसफुसाहट, अवश्य कोई 'वाद' हुआ होगा
और चीटियों..
या कहें कि आदम शवों से पटी वो किताब
जरूर कोई धर्मग्रन्थ ही रहा होगा।