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कल्प-विकल्प : तीन / इंदुशेखर तत्पुरुष

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यदि तुम मेरी ही कल्पना हो तो भी
यह तुम पर कोई अहसान नहीं मेरा
प्राणों की अकुलाहट को जगाती
यह मेरी ही तड़प थी
जिसे सरता भी नहीं था
तुम्हें सरजे बिना
तुम तो कभी आये भी नहीं
मेरे द्वारे-नौहरे खाते-
भला आते भी कैसे ?
‘‘मूक करोति वाचालं। पंगुं लंघयते गिरिम्।। यत्कृपा...’’
जैसी उक्तियों से स्तुत्य ओ, ईश!
मुझे स्वयं संदेह है कि तुम्हारे पास
चलने को मेरे जैसे पैर
अथवा कुछ कहने को जीभ रही भी होगी?
सो यह बात नहीं
बात थी कुछ और! बात थी कुछ और!
मुझे चाहिए थी गोद
ऐसी कि,
जिस पर शीश रखकर पसर जाऊं
कुछ देर पलकें मूंद कर
हो लूं विश्रान्त
गतक्लम-स्फूर्त
सिराहना होता रहे सहज सुलभ
जब चाहूं, जब तक चाहूं।
मिली तो और भी थी गोदें भांति-भांति की
प्यारी, मनहरी-रसभरी
पर ऐसी कि मेरा माथा उठने से पहले ही
वे खुद उठ गई अकस्मात्
स्वयं के लिए किसी गोद की खोज में
कि, जिसकी सूचना मुझे
मेरे मस्तुलुङ्ग के विस्फोट
और गर्दन के झटके ने दी
मैं अपना सर उठाता उन पर से
इससे पहले ही उठ गया मेरा विश्वास
वहां कहां समा पाता मेरा
यह कारस्तानी वाली शीश।
मैंने अच्छे-अच्छे फलों में
कीड़े कुलबुलाते देखे हैं
उनके सड़ जाने पर भी चिपटाये रखने की
समझदारी भरी दुनियादारी
मुझसे नहीं सधेगी! हर्गिज नहीं!
-धिक् तं च तां च मदनं च इमां च माम् च-
मुझे है अपरा तोष!
हे, अपरांपार आशुतोष!
मैं बचता गया
दुर्दांत-दभीं, अधिनायक-महानायकों
पाखंड-मंडित-मंडी के बिचौलियों
दलालों-गुरूघंटालों
अथवा मक्कार जननेताओं के
चित्ताकर्षक पोस्टरों से झांकते मोहिनी मुद्राओं वाले
सम्मोहक व्यक्तित्वों की शरणार्थी शिविरों सी गोद में
अपना मस्तक
टिका देने की टेक से।

अब, भ्रम;
‘तुम्हारा होना है’ अथवा
‘‘तुम्हारे होने को भ्रम मान लेना’’
यह अनिर्णित रहे तो भी
झुठला नहीं सकता उस सुगंध से
जो हरे धनिये और मीठे नीम की
ताजा पत्तियों की तरह सब्जियों में
भर देती है अनिर्वचनीय स्वाद।