Last modified on 12 फ़रवरी 2018, at 18:19

दुष्कर उपालंभ / वंदना गुप्ता

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:19, 12 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वंदना गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब चुक जाएँ संवेदनाएं
रुक जाएँ आहटें
और अपना ही पतन जब स्वयमेव होते देखने लगो
मान लेना
निपट चुके हो तुम

गिरजों के घंटे हों
मंदिरों की घंटियाँ
या मस्जिद की अजान
सुप्त पड़ी नाड़ियों में नहीं किया करतीं
चेतना का संचार
ये घोर निराशा का वक्त है
चुप्पियों ने असमय की है आपातकाल की घोषणा
और उम्र कर रही है गुरेज
मन के बीहड़ों से गुजरने में

ऐसे में
मन बहुत थका थका है
इस थके थके से मन पर
कौन सा फाहा रखूँ
जो सुर्खरू हो जाए उम्र मेरी
क्योंकि
जुगाली करने को जरूरी होता है दाना पानी

'आशावाद' आज के समय का सबसे दुष्कर उपालंभ है