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अगर मुझ पर तिरी चश्मे करम इक बार हो जाए / विजय 'अरुण'

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अगर मुझ पर तिरी चश्म ए करम<ref>दया दृष्टि</ref> इक बार हो जाए
तो मेरे वस्फ़-ए-पिन्हाँ<ref>छिपा हुआ गुण</ref> का अभी इज़हार हो जाए.

वफ़ा कर और इतनी कर सिला दुश्वार हो जाए
नहीं तो वह जफ़ा कर हर जफ़ा शहकार<ref>महानतम कृति</ref> हो जाए.

तुम अपने हुस्न पर नाज़ां मैं अपने इश्क पर नाज़ां
अगर दोनों ही नाज़ां हैं, मिरी सरकार हो जाए.

तिरा डर रोज़े महशर का बहुत उम्दा रहा नासेह
मगर नासेह! अगर फिर भी किसी को प्यार हो जाए.

अजब क्या आऊँ मैं तेरे ख़ुदा की सम्त भी ज़ाहिद
ज़रा इन्साने कामिल का मिरा किरदार हो जाए.

चला आया था ठुकरा कर दर-ए-दैर-ओ-हरम<ref>मन्दिर-मस्ज़िद का द्वार</ref> साक़ी!
कहाँ जाऊँ जो तू भी बर-सरे-पैकार<ref>लड़ाई पर उतारू</ref> हो जाए.

जगा दूंगा मैं सोज़े इश्क़<ref>प्यार का दर्द</ref> को हर संगदिल बुत में
ज़रा इक बख़्ते-ख़ुफ़्ता<ref>सोया हुआ भाग्य</ref> ऐ 'अरुण' बेदार हो जाए.

शब्दार्थ
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