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तुम्हारा ख़त / ज्योत्स्ना मिश्रा

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तुम्हारा ख़त मिल गया है
पढ़ लिया है,
संभाल कर रख दिया है
हाँ दूंगीं उत्तर भी
जरा हाथ में काम है कुछ
संगला लूँ।

बड़े दिनों में धूप चढ़ी है
सूखने को डाल दूँ
गीले कपड़े,
सीली किताबें,
अँसुआई आँखें
उतरते भादों को
छू कर तसल्ली कर लूँ

अचार की बरनियाँ
ओसारे में रख दूँ
बिटिया के बाल गूंथ दूँ
पछार लूँ, उमग आया जो धान
बारिश के उतरते ही निकलीं हैं
बीरबहूटी, इच्छाओं की
उनको कातिक की आस बंधा दूँ

ओस लगे पड़ने
इससे पहले
दरवाजे पर अल्पना बना लूँ
ऐपन से चौक पूर
दोहरा लूँ प्रार्थनाएँ
सबकी खैरियत की
एक एक कर फेंकूं
साँझा के पोखर में
सारी स्मृतियाँ सावन की

दिया बारु
मन की देहरी
आँचल की ओट करूँ
असमंजस के काँटे चुन लूँ
फिर प्रतिउत्तर भेजूगीं
सारे चन्दन भावों के
एक शरद की सिहरन भी
दो आँसू ठिठुरे पूस माघ के
मुठ्ठी भर बासंती रंग
और एक चुटकी फागुन।