Last modified on 27 मार्च 2018, at 15:10

पिता / अंचित

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:10, 27 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंचित |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो हमेशा अक्षम रहे बोलने में।
बिना बोले सब किये जाने की आदत
और दूसरों को बोलने देने की आदत ठेठ हो गयी समय के साथ।
माँ खीजती रहती है अक्सर
और गाहे बगाहे हमलोग भी किसी ना किसी मुद्दे की धौंस जमा देते हैं।
कैसे कोई आदमी इच्छा नहीं करता किसी भी चीज़ की,
कैसे सीख जाता है बाँध लेना ज़रूरतों को मुट्ठियों तक।
उन्होंने जो किया बस इतनी ही दूर में करते रहे हैं।
सब लेते रहे हैं जो लेना रहा उनसे
और कहते रहे उनको कमतर क्योंकि
वो जोर से कभी बोले नहीं कुछ
और छीना नहीं कुछ किसी से।
मेरे हाथ देखने में उनके हाथों जैसे लगते हैं
और मेरी आँखें भी उनकी आँखों जैसी,
पेड़ों की छाँव में रहते-रहते बीजों के मन में भी पलती है इच्छा
पेड़ होने की।