बहुत सी खुशफहमियाँ पाली थीं मैंने,
जब कभी भीड़ से गुजरी
स्वयँ को अलग पाया,
जैसे मेरी हो कुछ विशेष विशिष्टतायें
जिन्होंने मेरे चेहरे को
रंग दे दिया हो कुछ अलग ही!
मेरे संघर्ष,
मेरी उपलब्धियाँ,
मेरी उदासियाँ,
मेरी हँसी जैसे कुछ अद्वतीय हो,
जैसे मैं कुछ अधिक मनु्ष्य हूँ
शेष सब से,
अधिक संघर्षशील,
अधिक प्रसन्न,
अधिक गहरे उतरी हुई,
जैसे आकाशगंगा मे
चमकता एक तारा
इतरा उठे अपनी अनोखी दिपदिपाहट पर,
जैसे कोई फूल उठे फूल
अपनी अतिरिक्त महक पर,
घास का तिनका झूम उठे
अपने गहरे हरे रंग पर
ठीक वैसे...
पर समय ने आँख खोल
दिखाया,
समाज ने
अनेको उदाहरणों से समझाया
कि अद्वितीय है हर व्यक्ति भीड़ मे,
विशिष्ट है अपनी सामान्यताओं मे,
पैठा हुआ है गहरे,
अपने मन और तन की अनुभूतियों मे,
समझ मे बड़ा है,
संघर्ष की दौड़ मे
सबके साथ बराबर से खड़ा है!
प्रसन्न हूँ कि
मैं इन अद्वितीयों की भीड़ का एक हिस्सा हूँ
और हजारों कहानियों के बीच
एक मामूली सा किस्सा हूँ