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कजरीवन / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

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तिरिया के लोकवा में सोडसी के रूपराग,
बन के बसन्त घूमे सगरो सयान हो।
भाव के सुराज इहाँ कोई न अभाव रहे,
जोवना अखत ले ले गोरिया महान हो।
कहियो न झाँके जरा जोवन अखंड रहे,
सरग के सुखवा में जिनगी समान हो।
असन वसन भोग राग औ विलास रास,
कजरी के वन छाजै प्रेम के वितान हो॥

घिरल सेंवार से कमल लेखा तिरिया के,
मुँहमा में गंध-बसे अतुल अनूप हो।
मोहक बनल मुँह नर के रिझावे रोज,
रम्भा के भी मात करे तिरिया के रूप हो।
मोल-तोल होवे नहीं ताके नहीं पाप लोभ,
उगे नाहीं कहियो भी कामना के धूप हो।
अच्छरा के रूप नारी नर के भी संग लेके,
धरती के मद के जगावे बन भूप हो।

सगरो टँगल रहे रूखवा के डलिया में,
बिन माँखी मधवा के छत्तवा अमोल हो।
हथवा बढ़ाके चूसे चाटे सुख में विभोर,
एक दूसरो के चूमे ललित कपोल हो।
मधु भर दोनवा में पीए औ पिलावे लोग
कामना के लोकवा में होवे नहीं मोल हो।
ऊब नहीं होवे कहीं रति में रमनसुख
घूमे मनमा में लेके मोद अनमोल हो।

सुन्दर सरोवर में सोना के कमल खिले,
हंसवा मगन सोभे भाव में विभोर हो।
सुन्दर विहंगवा के गीत गँूजे कानन में,
हिरन छलाँग मारे सगरो अछोर हो।
अंगना के लोकवा में स्वामिनी बनल नारी,
सोडसी कहावे लेके सुसमा के भोर हो।
कसल जबानी में ही कुल के कुमारी रहे,
चान के कला के लेखा नाचे वन मोर हो।

अंगना के राज में तो कामलोक छाजे रोज,
कजरी के गीतिया में भरे अनुराग हो।
हथवा में लीला के कमल सोभे दिनरात,
जुड़वा में कुन्द फूल हँसे ले सुहाग हो।
मारे चितवन-बान मोद में हिलोर भरे,
कमला बनल भरे मन में पराग हो।
भोगवा के भूमिया में विरह के ताप नहीं,
विरह विधुर उर के न उदगार हो।

हथवा बढ़ाते मिले जिनगी के सुख-सार,
तिरिया के लोकवा में सगरो सिँगार हो।
बाधा नाहीं रोकथाम भोगवा के भूमिया में,
जोबन-बसन्त के ही सुन्दन प्रसार हो।
पल पल छन्द फूटे कविता के होंठवा से,
काम-कामिनी के रहे राग में प्रचार हो।
अच्छरा के रूप के उपासना में रहे लोग
फूटे सुधारस लेखा भावना उदार हो॥

काम इहाँ घूमे रोज संजम के संग में ही,
हारे कभी माया देवी जोगियो के जोर में।
जोगिया भी पड़े कभी मायाजाल में विसाल,
आनन्द मनावे बैठ कामिनी के कोर में।

काम के अखड़वा में हार जीत के ही जोग,
जीते जोग हारे काम भाव के हिलोर में।
अंगना के अंग मंे अनंग के प्रवाह झूमे,
मद-बाढ़ रूके नहीं भावना के छोर में।

सुन्दर अमलतास पहिन के हेमहार,
झूमे लाल-लाल फूल सुन्दर पलास के।
सुन्दर समीर बहे गन्ध तो अनूप ले के,
नाचे कुन्द कलि नव गावे गीत रास के।
माधवी झुकल रहे पाके भार फूलवा के,
भँवरा भी दउड़े गूँज ले के प्रेम-पास के।
सुघर सिँगार में ही जिनगी किलोल करे,
सगरो सुलभ रहे सुख सुविकास के॥