Last modified on 11 अप्रैल 2018, at 16:50

गरमी / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 11 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन' |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गरमी अथोर भोर तक ई सतावे रोज,
पवन न बीजना डुलावे बलवान हो।
बाग औ बधार सब घाम से झुलस गेल,
जर गेल मलिया के सब अरमान हो।
सह नहीं पावे कोई कठिन कठोर धाह,
सुरुज चलावे तान किरन के बान हो।
फेंडवों के छाँह तले तनिको न मिले चैन,
हाँफे सब ढोर भैया खाली हे बथान हो।

ताल औ तलैया सब सुख के पताल गेल,
सूख गेल नदियो भी नीर के अकाल हे।
तड़प तड़प मरे छछनल जीव सब,
धधकल लूक भेल आज विकराल हे।
जेठ के महिनमा में कहीं न पनाह मिले,
घरवो में बैठल ई धरती बेहाल हे।
आवा ई बनल व्योम आग बरसावे घोर,
आदित के अजगुत चंड भेल चाल हे।

कोमल ई तरवा में छाला भी पड़ल भारी,
राही भी तबाह भेल राह में दरार हो।
चीता औ बिलार सेर मान में घुसल ताके,
कहे लोग जंगल से भेल ई फरार हो।
देह से पसीना झरे उखबिख रहे मन,
जीना भी दूभर भेल फूटल कपार हो।
रूख और बिरिख गाछ सह के सकल घाम,
स्वाहा भेल सगरो से जेकरा न पार हो॥