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सौंदर्य-बोध / रामदरश मिश्र

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सौंदर्य-बोध
मानव-मन की सबसे बड़ी नियामत है
कलाएँ विविध प्रकार से
इसी को सहेजती रहती हैं
परंतु क्या विडंबना है
कि अपढ़ गँवार श्रमजीवी
रोटी-बोध तक सीमित रह जाते हैं,
मेरा मकान बन रहा है,
बनारहा है एक अपढ़ गँवार मिस्त्री
अब बरामदे में फर्श तैयार होनी थी
मैं एक दिन के लिए बाहर चला गया
लौट कर आया तो देखा
फर्श पर उगते हुए सूर्य का चित्र उकेरा गया है
लाल-लाल आभा सेदीप्त
अरे वाह, क्या बात है
मुझे लगा कि
घरों में जागृति का छंद गूँज रहा है
सरोवरों में कमल खिल गए हैं
राहें बज रही हैं, पगध्वनियों से
और डाल-डाल पर पंछी चहचहा रहे हैं।
-3.10.2013