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आमने-सामने / रामदरश मिश्र

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उस शहर में
सड़क के इस ओर कवि का घर था
उस ओर रेत-व्यापारी की बड़ी सी खुली दुकान
रात को कवि का घर कविता गुनगुनाता हुआ
सो जाता था और सपना देखने लगता था-
एक हँसते हुए समय का
तभी दुकान में किसी ट्रक की घोर घर्राहट
उपद्रव मचाने लगती थी
और शोर करती हुई ईंटें
उस पर से गिरने लगती थीं टन्न टन्न...
कवि के घर का सपना अस्तव्यस्त हो जाता था
सुबह होते ही
कवि के आँगन में स्थित पारिजात के वृक्ष पर
मंगल प्रभाती की तरह
छोटी-छोटी चिड़ियों का मधुर सहगान गूँज उठता था
उसी समय
दुकान में खड़े बबूल पर से
एक कौआ चीखने लगता था-काँव काँव काँव...
बबूल के काँटों का दंश
उसके स्वर में मिल जाता था
और पूरा परिवेश एक चुभन महसूस करने लगता था
कवि के घर से
पुष्पों की ढेर सारी खुशबू लेकर वासंती हवा निकलती थी
और दुकान पर जाकर रेत से भर जाती थी
आसपास के आकाश में किरकिराहट व्याप जाती थी

घर और बाज़ार
आमने-सामने होते हुए भी
कितने दूर थे एक दूसरे से।
-28.2.2015