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कहो! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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पातालपानी (इन्दौर) करे झरने और पहलगाम (कश्मीर) के नाले की
मिली जुली याद में।
मौन क्यों हो!
उठो, उठो, बढ़ो,
गुंजान, बीहड़, पहाड़ी पंथ की ऊँचाइयों से-
जल-प्रपात बनकर
सिर के बल पड़ो!

अंग-भंग कराओ, घुटने तुड़ाओ,
नुकीली चट्टानों से टकराओ,
मन-चाहा फेनिल जीवन-संगीत पाओ!
कराहो, दहाड़ो, टीसें भरो,
हाहाकार करो,
झरने से बहो,
चुप न रहो!

सारी धरती निर्जीव बर्फ़ की चट्टान सी पड़ी है, दीन-
गीत और झंकार-हीन!
उसमें पलाश-राग से दहो
शून्य और जड़ता की छाती चीर कर कुछ कहो!
अरे-
न छिपाओ, न छिपाओ,
प्राणों के तार में जो अरुण झंकार है-
ओठों के पीछे जो अनन्त विस्तार है-
लेखनी की नोक में जो ताबड़तोड़ ज्वार है-
उसे हरहराते, धड़धड़ाते बहाओ,
बाहर लाओ!

जीवन का यह लाल-लाल,
दहकता-लहकता,
चीखते स्वर्ण-सा अंगार-
एक क्षण में बुझ जायगा!
जीवन-महानल के विद्युत्-गृह से जुड़ा यह तार-
देखते ही देखते चुक जायगा!
‘मुहूर्तं ज्वलित श्रेयो न च धूमायितं चिरम्’
ले आओ धधकाते, बाहर-
जो है प्राण का दीप्ततम, स्वर्णतम, भव्यतम!

कन्धारी अनार के दानों सी उषाओं से,
केसरिया सन्ध्याओं से,
जामुनियाँ घन-घटाओं से,
कोई सी भी भाषा लो, स्वर लो, रंग लो,
त्यौरी लो, तेवर लो, तरंग लो;
देखो, एक क्षण भी मत चूको-
जीवन की जड़ वंशी के छिद्रो में-
तपते ताँबे-से प्राण फूँको!
गदराये यौवन की हरी-भरी सुरभित साँस-से गहगहो-
कुछ कहो!

बिजली की वेगवान्
खींचकर कुंचित स्वर्ण-रेखा ज्योतिप्राण,
शुक्र-तारकाक्षरों में दीप्त-
लिखो रे लिखो
जीवन का कनक-गीत!