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निर्झर / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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छट पड़ा मैं तो शिखरों से बेकाबू जलधार-सा,
आँखों में सागर के सपने, पग में कुछ अंगार-सा!
रोम-रोम मेरी काया का आघातों से चूर है,
बड़ा मजा है-रागिनियों से जीवन-पथ भरपूर है!
लाल उषा-सी छलक रही है मुझसे जीवन-चेतना,
अपने ही सौरभ से मेरी नस-नस में उत्तेजना!
मेरी ठुमकें, मेरे तोड़े निरख रहा आकाश है,
अतल समुद्रों के कूलों को मेरी आज तलाश है!
डेढ़ पसलियों की बिजली क्या जानेगी गतिशीलता?
मेरा पीड़ा का आँधी के नव पल्लव को क्या पता?
शिखर-सिन्धु की खूँटी वाला जीवन, सुदृढ़ सितार है,
अति झंकृति से टूट पड़े जो-मेरा तन, वह तार है!
विजन-वल्लरी सा रहने दो मुझको बेपरवाह सा,
टेसू-वन की तप्त लालिमा का मैं मूर्त प्रवाह-सा!
जीवन मेरा तप्त लौह की तरल-तरंगित धार-सा,
मस्ती से बहने दो मुझको पर्वत के शृंगार-सा!
मत समझो मुझमें बस केवल लहरें, बुदबुद, झाग हैं-
देख सको तो देखो कितनी अरुण-बैंगनी आग है!