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यायावर कवि / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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क्या जरूरी है कि
कोई एक यायावर
समुद्रों-पार से आकर
अचानक आ खड़ा हो
और
उसके होठ पर
कोई तृषाकुल राग भी उमड़े
समूची तंत्रिका के तार
सहसा झनझना जायें!
नहीं
बिल्कुल जरूरी तो नहीं है!

किन्तु यायावर अगर
संयोग से कवि-मन लिये
पहंुचा हुआ हो, तो!
सहज संवेदनाओं से भरा हो, तो!

असंभव है कि
कोई राग या कविता न फूटे!
हां, असंभव है!
कि कविता बर्फ तो होती नहीं
जो होठ पर जम जाय
वह तो ताप है
जो बर्फ पिघलाती
किसी जल-स्रोत को

चुपचाप दिखलाती
कि देखो, बह रही सरिता!
कि देखो, वह रही कविता
शिलाओं, पर्वतों को चीरती
कल-छल!
कि इसका जल
किसी भी देश अथवा काल का
होता नहीं मोहताज!

यह कविता
निरर्थक शब्द-संग्रह भर नहीं
वागर्थ है यह
पार्वती परमेश्वरी वाला!
कि यह उस मौन कवि का
भीतरी आवेग है
जो शिलानगरों में
थका-हारा भटकता है
सहज सौहार्द की
आत्मीयता की खोज में
जिसको
अचानक याद आता है
कहीं छूटा हुआ वह गांव
जो साक्षी रहा है
उन विगत तुतलाहटों का
और शैशव पर हुई
कैशोर्य की उन आहटों का
जो उसे अब तक
सहज आत्मीयता
भावुक तृषा से भर रही हैं!

हां,
इन्हीं कुछ आहटों को टोहता
वह
गांव अपना याद करता है
कभी
कुछ अंतरंगों की
अपरिति भीड़ में
आत्मीय आस्था की
अकेली गंध में डूबा हुआ
सौहार्द की फरियाद करता है!
कि यह कवि है प्रथमतः
ओर जो कुछ शेष है
उसके निजी व्यक्तित्व में
वह भी निरा कवि है!