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गुमशुदा बच्चे की तलाश / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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यह शहर में लगा मेला
आज उठने जारहा है
ढह गये तंबू सभी
औंधे पड़े हैं शामियाने
सांझ की टूटी-थकी
परछाइयों में
कांपती खामोश
बुझती रोशनी की थरथराहट!

खो गये दिलकश नजारे
रंग, खुशबू, आहटें
ओझल हुए सब
सिर्फ यह उजड़ा तमाशा
सिसकियां भरता हुआ
सिमटी कनातों पर धरे सिर
ऊंघता है!

और मैं भटका हुआ-सा
खोजता हूं
एक बच्चा गुमशुदा
जो अब नजर आता नहीं
मेला-तमाशा उठ चुका है
और मेरी बांह थामे
चल रहा था जो
पुलकता, मुग्ध होता, गीत गाता

और हठ करत, मचलता
कभी रोता, कभी हंसता
कभी चुप होता
ठहाके मारकर
रंगीन गुब्बारे उड़ाता
और अचरज में पड़ा-सा
छोड़ता सुर्री-पटाखे
झिलमिलाती रोशनी के
झूलते उन्मुक्त फव्वारे
ठगा-सा देखता भौंचक!
छुड़ाकर हाथ सहसा
भीड़ में गुम हो गया
बच्चा
बिछुड़कर खो गया
जाने कहां!

मैं खोजता हूं
आज तक
वह एक बच्चा
हां, वही बच्चा
बहुत हमशक्ल मेरा
या कि शायद मैं स्वयं ही!
-9 अगस्त, 1987